धर्म-संस्कृति के नाम पर महिला हिंसा, कब तक?

ताज़ा ख़बर तेज़ विशेष देश विदेश

धर्म के नाम पर औरतों की आज़ादी छीनता एक मुल्क, जो किसी ज़माने में काफी आधुनिक हुआ करता था जिसे आज हम इस्लामी अमीरात ( अफगानिस्तान ) के नाम से जानते है। एक तरफ पूरा विश्व जहां समानता की बात करता है, वहीं, दूसरी तरफ एक देश में महिलाओं के साथ ऐसा सुलूक किया जा रहा है। फिर भी मानवाधिकार संगठन चुप हैं, जैसे उनकी ज़ुबान पर किसी ने ताला लगा दिया हो। समाज में औरतों की जो दशा है वह एक लंबे दशक से चली आ रही पितृसत्ता का ही नतीजा है। अफगानिस्तान में जो हो रहा है महिलाओं के साथ वह भी पितृसत्ता का ही क्रूर रूप है। क्या कभी हम में से किसी ने यह जानने की कोशिश की कि आखिर औरतों के साथ ही ऐसा दुर्व्यवहार क्यों होता है, इसका क्या कारण है? तो इसका जवाब एकदम सीधा है कि हमारा समाज और संस्कृति ही वे दो कारण हैं जिनकी वजह से महिलाओं की स्थिति इतनी दयनीय है।

अब बात अफगानिस्तान की करें या किसी भी मुल्क की, जो हो रहा है वह धर्म के नाम ही हो रहा है। गीता लिखी गई या कुरान लिखा गया, क्या कोई मुझे यह बताएगा कि किस किताब में ऐसा लिखा है कि औरत के कन्धों पर ही समाज की सारी मर्यादा डाल दी जाए। लोक-लाज का ठेका क्या सिर्फ औरतों ने ही उठा रखा है ? एक मुल्क में धर्म के नाम पर महिलाओं और लड़कियों से उनके सारे मानवीय अधिकार छीने जा चुके हैं और हम बात समानता और शिक्षा की कर रहे हैं? क्यों नहीं करेंगे क्या हमारे देश भारत में औरतों के साथ भेदभाव नहीं होता है?

उदाहरण के तौर पर क्यों घूंघट की जो प्रथा चली आ रही है अभी तक? यह प्रथा भी तो ज़बरन पुरुषों द्वारा ही करवाई जा रही है न, मर्यादा के नाम पर। इसे तो हमं बड़े-बूढ़ों को आदर देना का एक तरीका बताया गया है। बचपन में ही लड़कियों की शादी क्यों कर दी जाती है? इसलिए क्योंकि बच्चे आगे चलकर अपनी पसंद की शादी ना कर लें।

समाज के मुताबिक इसमें गलत क्या है, यह तो मां-बाप का हक है। ये सारी बातें कहने का यही मतलब है कि औरत किसी भी मुल्क की हो, जाति की हो, धर्म की हो, बुर्के में हो या घूंघट में हो मान-सम्मान और सारे कर्तव्य की जिम्मेदारी उन पर ही डाल दी जाती है। नज़र किसी मर्द की बुरी है तो उसकी सोच बदलने पर काम करना चाहिए, महिलाओं से क्यों उनकी आज़ादी छीन ली जाती है। हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। पितृसत्ता अपनी सामाजिक व्यवस्था के अनुसार स्त्री द्वेष के माध्यम से महिलाओं को महिलाओं के ख़िलाफ़ खड़ा करने का काम करती है, जिसे हमें समझना होगा। 

बलात्कार, यौन हिंसा, घरेलू हिंसा और भ्रूण कन्या हत्या जैसे ढ़ेरों महिला हिंसा पितृसत्तात्मक समाज की कड़वी सच्चाई हैं और इस व्यवस्था का किसी सरहद से कोई वास्ता नहीं। रूप-स्वरूप में फ़र्क़ हम देख सकते हैं, लेकिन मूल सबका एक है। ये हमारे लिए शर्मनाक है कि देश का एक वर्ग से आज भी अपने हक़ से वंचित है और दूसरी तरफ़ ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ का नारा लगाया जा रहा है। अभी वक़्त है उठ जाईए और उतार फेंकिए ये चोला जो पितृसत्तात्मक समाज ने हमें ज़बरन पहनाया है। लड़िए अपने लिए क्योंकि सभी को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी, कोई नहीं आएगा साथ देने।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *