ग्रामीण महिलाओं के ऊपर त्योहार, काम और हिंसा की संभावनाएं

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नवंबर-दिसंबर का महीना भारत में त्योहार का महीना होता है। त्योहार यानी कि घर-बाहर हर जगह चकाचौंध का माहौल। त्योहार के समय जहां एक तरफ़ समाज में धर्म-संस्कृति की बातें और उनके अनुसार त्योहार मनाने के तरीक़े तेज होते हैं। वहीं, दूसरी तरफ महिलाओं के ऊपर काम के दबाव और हिंसा की संभावनाएं भी बढ़ने लगती है। आपको हो सकता है मेरी ये बातें थोड़ी अजीब लगें पर वास्तविकता यही है कि ग्रामीण क्षेत्रों में त्योहार का महत्व आज भी आम लोगों के जीवन में ज़्यादा है। लेकिन जब हम इसे महिला के परिपेक्ष्य में देखते हैं तो ये उनपर बढ़ते काम के बोझ और हिंसा की संभावनाओं के रूप में दिखते हैं।

मज़दूर परिवार से आने वाली सुनीता (बदला हुआ नाम) महिला स्वयं सहायता समूह से जुड़ी हैं। हर महीने वह अपनी मज़दूरी के पैसे से बचत करती हैं और अपना परिवार चलाती हैं। शराबी पति की पूरी मज़दूरी उसके शराब पीने में चली जाती है। दिवाली का त्योहार पास है और अब सुनीता को यह चिंता सताने लगी है कि वह अपनी इस जमापूंजी को अपने पति से कैसे बचाएगी क्योंकि पिछले साल दिवाली के दिन शराब के लिए पैसे न देने पर उसने सुनीता की तरह बुरी तरह मारपीट और बच्चों के लिए बनाए खाने को फेंक दिया था।

दिवाली के त्योहार के समय अक्सर गाँव के कई परिवारों में ऐसी कई घटनाएं देखने को मिलती हैं। गाँव में चलने वाले इस स्वयं सहायता समूह में अधिकतर महिलाएं ऐसी ही पारिवारिक पृष्ठभूमि से आती हैं जहां रोटी कमाने से लेकर रोटी बनाने का तक का ज़िम्मा ये महिलाएं ख़ुद उठाती हैं पर दुर्भाग्य से त्योहार हर बार महिलाओं पर न केवल काम के बोझ को बढ़ाते हैं बल्कि उनके साथ होने वाली हिंसा की संभावना को भी बढ़ा देते हैं।

त्योहार की वजह से महिलाओं के ऊपर काम के साथ-साथ बच्चों की इच्छाओं को पूरा करने का भी बोझ बढ़ने लगता है। इस बीच में शराबी और जुआ खेलने वाले पुरुष लगातार अपने घर की महिलाओं ख़ासकर पत्नियों पर पैसों के लिए दबाव बनाने लगाते हैं और पैसे न मिलने पर उनके साथ हिंसा करने के लिए भी उतारू हो जाते हैं। इसलिए अधिकतर समूह से जुड़ी महिलाएं ऐसे बड़े त्योहार पास आने पर समूह में जमा अपनी मेहनत की जमापूंजी को लेकर परेशान होने लगती हैं। उन्हें हर बार यह डर लगा रहता है कि उनके पति न जाने कब हिंसा के ज़रिए या तो उनकी जमापूंजी उनसे ले लेंगें या फिर वह किसी से क़र्ज़ ले लेते है जिसकी भरपाई महिलाओं को ही करनी पड़ती है।

महिलाओं के साथ आए दिन होनेवाली घरेलू हिंसा त्योहार के समय और भी बुरे रूप में बदल जाती है। यह हिंसात्मक रूप महिलाओं को न केवल मानसिक और शारीरिक बल्कि आर्थिक रूप से भी प्रताड़ित करता है। धनतेरस के त्योहार के दिन गाँवों में जुआ खेलने की परंपरा आम है। इस दिन परंपरा और रिवाज के नाम पर जुआ का खेल और भी ज़ोर-शोर से खेला जाता है, जिसमें पुरुष अपने घर की पूरी पूंजी लगाने को उतारू हो जाते हैं।

दिवाली और होली जैसे सौहार्द वाले त्योहार ग्रामीण क्षेत्रों के बहुत सारे परिवारों के लिए बुरी यादें और हिंसा का दोहराव लेकर आता है। यह बहुत अजीब है कि जो धर्म एक तरफ़ त्योहार और रीति-रिवाज के नाम पर महिलाओं पर काम के बोझ को बढ़ाता है। वहीं, दूसरी तरफ़ पुरुषों को अपने अधिकारों का ग़लत इस्तेमाल करने के लिए आज़ादी देता है। पितृसत्ता के बनाए शादी, परिवार और जेंडर आधारित भूमिकाएं लगातार महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाती हैं। यह संकीर्ण रूढ़िवादी जेंडर रोल ही महिलाओ को पुरुषों की ग़ुलामी से ऊपर नहीं उठने देते जिसकी वजह से वे न चाहते हुए भी अपने साथ होने वाली हिंसा को सहती रहती है।

यह जानते हुए भी कि उस परिवार का पेट उनके कमाए पैसे के चलते है न की उसके पति है। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर मज़दूर परिवार की ये महिलाएं समाज के नियमों को ख़ुद को जकड़ा पाती हैं जिसकी वजह से सालों साल या कई बार जीवनभर वे हिंसा को चुपचाप सहती रहती हैं। भले ही उनकी ज़िंदगी की दिवाली हिंसा के डर के साये में गुज़रती रहे।

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