विद्या बालन और शेफाली शाह सिनेमा जगत का जाना पहचाना नाम हैं। आज इन दोंनो अभिनेत्रियों ने जो कुछ भी हासिल किया है वह उन्होंने अपनी मेहनत और काम के बल पर हासिल किया है। इन दोंनो अभिनेत्रियों की यहां बात इसलिए हो रही हैं क्योंकि हाल ही में उन्होंने अपनी नयी फिल्म ‘जलसा’ के प्रमोशन के दौरान द क्विंट दिए एक इंटरव्यू में जिस मुद्दे को उठाया है वह हमारे पितृसत्तात्मक समाज की एक बड़ी गंभीर समस्या है। बातचीत करते हुए इन दो अभिनेत्रियों ने कामकाजी भारतीय महिलाओं के काम को कम अहमियत देने पर अपने निजी अनुभवों को उज़ागर किया है। इन दोनों अभिनेत्रियों ने अपने परिवार और घर में काम को लेकर सेक्सिज़म पर अपने अनुभव साझा किए हैं। कैसे महिला होने के कारण उनके घर के माहौल में उनके काम को वह अहमियत नहीं दी गई जो उनके पति को मिलती है।
विद्या बालन और शेफाली शाह ने इस विषय पर बात करते हुए कहा, “हमारे काम को काम ही नहीं समझा जाता है। हम क्या कर रहे हैं लोग यह समझने की कोशिश नहीं करते हैं। महिलाओं के काम के प्रति असंवेदनशीलता है।” विद्या बालन कहती हैं, “जब मैं और मेरे पति घर पर काम कर रहे होते हैं तो बाकी लोग मुझे काम के बीच में सवाल करने से नहीं हिचकते और खाने में क्या बनाना है जैसी बातों को पूछते हैं। वे सिद्धार्थ को काम के बीच में कुछ भी कहने से पीछे हटते हैं लेकिन मुझे बीच कॉल में भी कुछ कहने से नहीं कतराते। पलटकर जब मैं बोलती हूं कि भैय्या से पूछो तो जबाव आता है कि वह काम कर रहे हैं।”
ठीक इसी तरह का अनुभव शेफाली शाह अपने परिवार के बारे में साझा करती नज़र आती हैं। वह कहती हैं कि उनका बेटा तक उन्हें काम के बीच में परेशान करता है। उनके परिवार तक में उनके काम को काम ही नहीं माना जाता है। इसी तरह के भेदभाव पर शेफाली शाह द इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक दूसरे इंटरव्यू में यह तक कहती हैं कि जब वह काम पर लगातार जाती हैं तो उनसे पूछा जाता है, “क्या आज भी तुम शूटिंग पर जा रही हो। इससे अलग जब मैं शूट पर नहीं जाती हूं तो मुझ से कभी नहीं पूछा जाता कि तुम काम पर कब जाओगी।”
अपने काम की बदौलत अपनी पहचान बनानेवाली इन दोनों अभिनेत्रियों ने जो अनुभव साझा किए हैं वह वर्ग, जाति, काम, पहचान आदि क्षेत्रों में विशेषाधिकार हासिल कर चुकी महिलाओं के हैं। इन दोनों के पास सहूलियत भरा जीवन है लेकिन फिर भी उनके प्रोफेशन को कम महत्व देने का पहला अनुभव उन्होंने अपने घर में महसूस किया है। इससे अलग सामान्य कामकाजी महिलाओं को तो अनेक तरह के भेदभाव का सामना हर दिन करना पड़ता है। आम कामकाजी महिलाओं के काम को आज भी वह सम्मान दिया ही नहीं जाता है जिसकी वे हकदार हैं। घर हो या बाहर महिलाओं के काम को कम गंभीरता से लिया जाता है।
समाज में महिलाओं को घर के ‘मैनेजर’ के तौर पर देखा जाता है। चाहे वह किसी भी पद पर काम कर रही हो लेकिन घर की ज़िम्मेदारी उनकी ही मानी जाती है। अधिकतर कामकाजी महिलाओं पर दफ्तर के बाद घर का काम भी करने का दबाव रहता है। सरोज एक कामकाजी महिला हैं। वह पेशे से एक टीचर हैं। बीस साल से अधिक का उन्हें शिक्षण क्षेत्र में अनुभव है। उनके पति भी एक टीचर थे। दोनों का समान पेशे से जुड़े होने के बावजूद दोनों के नौकरी के अनुभव अलग हैं। वह कहती हैं, “हम दोनों को सुबह सात बजे के स्कूल अटेंड करने जाना होता है। मेरे दिन की शुरुआत सुबह पांच बजे हो जाती है। स्कूल से पहले खाने का इंतज़ाम करना और वापस लौटकर पूरे घर को संभालना यह सिर्फ मेरी ज़िम्मेदारी होती है। पति के रिटायमेंट के बाद भी मुझे अपने स्कूल जाने से पहले बराबर घर के काम को करके जाना होता है।”
पितृसत्तात्मक समाज में घर वह संस्था है जहां लैंगिक भेदभाव की सीख दी जाती है यानी पुरुष बाहर जाकर कमाता है और महिलाएं घर का काम करती हैं। पितृसत्तात्मक विचारधारा में महिलाओं को हमेशा दोयम दर्जा दिया जाता है। चाहे घर हो या बाहर का काम जब महिलाएं काम करती हैं तो उसको कम या आसान आंका जाता है। महिलाओं के काम को कम अहमियत देना, उसे गैरज़रूरी बताना उनके श्रम का अपमान है। उनके द्वारा घर के किए काम के लिए कोई वेतन ही नहीं मिलता है। महिलाओं के अवैतनिक काम को को लेकर द हिंदू में प्रकाशित ऑक्सफैम के एक अध्ययन में कहा गया कि दुनियाभर में महिलाओं द्वारा किया गया अवैतनिक काम सलाना 10 ट्रिलियन डॉलर है, जो दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी ऐपल के सालाना कारोबार का 43 गुना है।
भारत में अपने घरों और बच्चों की देखभाल करने वाली महिलाओं द्वारा किया गया अवैतनिक काम देश के सकल घरेलू उत्पाद का 3.1 प्रतिशत है। शहरी क्षेत्र में महिलाएं प्रतिदिन 312 मिनट और ग्रामीण भारत में 291 मिनट प्रतिदिन ऐसे अवैतनिक देखभाल वाले कामों पर खर्च करती हैं। इसकी तुलना में पुरुष शहरी क्षेत्रों में केवल 29 मिनट और ग्रामीण क्षेत्रों में 32 मिनट अवैतनिक देखभाल काम पर खर्च करते हैं।
वर्तमान में दुनियाभर में महिलाएं हर क्षेत्र में पुरुषों के समान काम कर रही हैं, लेकिन उन्हें वेतन समान काम के लिए हमेशा पुरुषों की तुलना में कम दिया जाता है। ऑक्सफैम के अनुसार भारत में असमानता का चेहरा महिला है। जहां पुरुषों की तुलना में महिलाओं को काम करने की संभावना कम है। कामकाजी महिलाएं वेतन में अंतर के कारण पुरुषों के मुकाबले कम कमा पाती हैं। इसलिए जो घर मुख्य रूप से महिला कमाने वालों पर निर्भर हैं, वे गरीब हैं।
रूढ़िवादी समाज में वैसे तो महिलाओं का घर से बाहर जाकर काम करना अपने आप में एक चुनौती है लेकिन आज शिक्षित और अशिक्षित महिलाएं भारत में घर से बाहर जाकर काम करती हैं। आम शहरी मध्यमवर्गीय महिलाएं शिक्षा हासिल कर खासतौर पर नौकरियां कर रही हैं या करने की इच्छाएं रखती हैं। लेकिन पारंपरिक रीतियों का हवाला देकर उन्हें काम करने से रोका भी जाता है। महिलाओं का बाहर जाकर काम करने को उनका एक ‘शौक’ बता दिया जाता है।
दिलचस्प बात यह है कि कई देशों में शिक्षा के मामले में लड़कियां लड़कों से आगे निकल रही हैं, लेकिन रोज़गार के मामले में इसका कोई खास फायदा नहीं हो रहा है। स्कूल और यूनिवर्सिटी स्तर पर उत्कृष्ट प्रदर्शन होने के बावजूद कार्यक्षेत्र में वे अपने पैर नहीं जमा पा रही हैं। वे अपनी शिक्षा को रोज़गार में तब्दील करने में नाकाम है। कार्यबल में असमानता के कई सामाजिक कारण है। द गार्डियन के अनुसार विश्व बैंक की रिपोर्ट में कहा गया है कि शिक्षा में तरक्की उच्च श्रम शक्ति की भागीदारी से नहीं मिल पा रही है। 24 साल की उम्र तक महिलाएं सभी क्षेत्रों में पिछड़ जाती है। लैटिन अमेरिका और कैरिबियाई देशों में यह अंतर 26 प्रतिशत का है। दक्षिण एशिया में आते ही यह अंतर बहुत बड़ा हो जाता है। जहां 82 प्रतिशत पुरुषों के मुकाबले केवल 28 प्रतिशत महिलाएं श्रम बाजार में सक्रिय हैं।
बात अगर भारत की करें तो कार्यबल में महिलाओं के उत्थान के लिए राजनीतिक तौर पर बड़े-बड़े वादे किए जाते हे हैं। वास्तविक असमानता की स्थिति को बयां करने के लिए आंकड़े ही काफी है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 में 156 देशों में भारत 28 स्थान नीचे खिसककर 140वें स्थान पर आ गया है। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार भारत में महिलाओं की श्रम में भागीदारी दर में कमी आई है। जो 24.8 प्रतिशत से गिरकर 22.3 प्रतिशत हो गई है। यह रिपोर्ट के अनुसार भारत में महिलाओं की आय पुरुषों की आय का केवल पांचवा हिस्सा है। जो विश्व स्तर पर देश को नीचे से दसवें स्थान पर रखता है।
घर और रसोई को सिर्फ महिला का क्षेत्र मानने की वजह है कि इस लेख की शुरुआत में जब दोनों अभिनेत्रियां अपने अनुभव बताती हैं तो उनसे मांगी जाने वाली सलाह रसोई से जुड़ी है। अपने घर में विद्या बालन को ही रसोई में क्या पकाना है उसका फैसला लेना है, उनके पति यह काम क्यों करेंगे। ये बातें उसी कंडीशनिंग को दिखाती हैं जो यह कहती है कि असल में चूल्हा-चौका ही महिलाओं का काम है। इस तरह के फैसले लेने के लिए पुरुषों का समय क्यों बर्बाद किया जाए। इससे अलग अगर कोई पुरुष घर के काम करता है तो समाज में उसे उपहास की दृष्टि से देखा जाता है। उसे एक गलत उदाहरण माना जाता है।
किसी भी काम को करने का वास्ता किसी इंसान के जेंडर से नहीं जुड़ा हुआ है। रूढ़िवादी समाज में ही इस तरह की अवधारणा जन्मी है कि महिलाएं बाहर के काम नहीं कर सकतीं, महिलाओं को केवल घर का काम करना चाहिए। कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना आर्थिक समृद्धि है। घर से बाहर जाकर काम करके पैसा कमाना न केवल उसके खुद के लिए और घर की आर्थिक वृद्धि है बल्कि देश की अर्थव्यवस्था में भी योगदान देती है। महिलाओं का खुद का पैसा कमाना उनमें आत्मविश्वास को बढ़ाता है। उनमें नेतृत्व की क्षमता पैदा करता है।