महत्वपूर्ण प्रगति के बावजूद,आज भी गरीबों में महिलाओं की संख्या अधिक है।

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हाल ही में विश्व बैंक के एक वर्किंग पेपर में कहा गया कि भारत में चरम गरीबी साल 2011 के 22.5 प्रतिशत से घटकर साल 2019 में 10.2 प्रतिशत हो गई। रिपोर्ट के अनुसार शहरी क्षेत्रों की चरम गरीबी में 7.9 प्रतिशत की गिरावट की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में 14.7 प्रतिशत की गिरावट कहीं अधिक और स्पष्ट थी। लेकिन गरीबी का मतलब केवल आय की कमी और बुनियादी चीज़ों को खरीदने में असमर्थता नहीं है। यह आर्थिक, सामाजिक, जनसांख्यिकीय, सामुदायिक और राजनीतिक कारणों वाली बहुआयामी और जटिल समस्या है। चरम गरीबी को कम करने के महत्वपूर्ण प्रगति के बावजूद,आज भी गरीबों में महिलाओं की संख्या अधिक है।

गरीबी महिलाओं को उनके बुनियादी अधिकारों से वंचित करती है, समाज में उनकी स्थिति को और कमज़ोर बनाती है और उन्हें हाशिए पर जीने को मजबूर करती है। महिलाओं का गरीबी को झेलने की संभावना पुरुषों की तुलना में अधिक होती है। इसलिए सालों से ‘फेमिनाइज़ेशन ऑफ़ पोवर्टी’ टर्म का इस्तेमाल महिलाओं के लिए होता आया है। हालांकि, इस का इस्तेमाल सालों से होता आ रहा है, लेकिन बीजिंग में हुए चौथे विश्व सम्मेलन में पहली बार गरीबी को सामाजिक और आर्थिक समस्या के अलावा लैंगिक समस्या की मान्यता दी गई।

‘फेमिनाइज़ेशन ऑफ़ पावर्टी’ टर्म का उल्लेख पहली बार 1970 के दशक में समाजशास्त्री डायना पीयर्स ने किया था। आसान शब्दों में कहें तो, दुनिया भर के गरीबों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या अधिक है। यह गरीबी में जी रहे पुरुषों और महिलाओं में लैंगिक अंतर के कारण उनके जीवन में बढ़ती असमानता की प्रवृत्ति को दिखाता है। इससे पता चलता है कि कैसे एक जैसी सामाजिक और आर्थिक स्थिति होते हुए भी पुरुषों की तुलना में महिलाओं की स्थिति अधिक गंभीर होती है।

महिलाओं को अक्सर उनके समकक्षों की तुलना में समान काम के लिए कम वेतन दिया जाता है। कई बार यह काम अवैतनिक होता है और इसे महत्वपूर्ण भी नहीं समझा जाता। इस तरह उन्हें समाज में जीने के लिए आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक और मानसिक रूप से शोषण का सामना करना पड़ता है। लगभग सभी देश और समुदायों में महिलाओं में गरीबी दर पुरुषों की तुलना में अधिक है।

आमतौर पर महिलाओं के स्वास्थ्य और पोषण संबंधी ज़रूरतों को भी प्राथमिकता नहीं दी जाती है। चूंकि गरीबी में जी रही महिलाओं की पहुंच अच्छी शिक्षा या अन्य संसाधनों तक नहीं होती है, उन्हें अपने घर या समुदाय में निर्णय लेने के अधिकार से भी दूर रखा जाता है। हालांकि, पुरुष और महिला दोनों गरीबी से पीड़ित होते हैं, लेकिन महिलाओं के पास गरीबी से उबरने और सामना करने के लिए संसाधन नहीं होते या बहुत कम होते हैं। ऐसे में, कई बार पुरुष साथी की अनुपस्थिति में जब महिलाओं को घर के मुखिया की ज़िम्मेदारी निभानी होती है तो पीढ़ी दर पीढ़ी गरीबी का बोझ चलते जाने का खतरा बना रहता है।

गरीबी अलग-अलग हिंसा का कारण बनती है और कई बार हिंसा को बढ़ावा देती है। चूंकि हमारे पितृसत्तात्मक समाज में महिलाएं सबसे नीचे हैं, इसलिए पुरुषों की तुलना में महिलाओं के शोषित होने का खतरा कहीं अधिक होता है। जहां, गरीबी महिलाओं के खिलाफ यौन शोषण को खत्म करने में एक बाधा बनती है, वहीं गरीबी के कारण होने वाले यौन शोषण का शिकार भी महिलाएं अधिक होती हैं।

उदाहरण के लिए वाटरऐड के मैनुअल स्कैवेंजिंग में शामिल महिलाओं की स्थिति पर एक सर्वेक्षण में यह पाया गया कि सूखे शौचालय और खुले नालों की सफाई में महिलाएं कहीं अधिक संख्या में लगी हुई हैं। इस सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को अन्य जाति के लोगों द्वारा आर्थिक, शारीरिक और यौन हिंसा का अधिक सामना करना पड़ता है। स्पष्ट है कि एक ही आर्थिक और सामाजिक स्थिति होते हुए भी पुरुषों को ज्यादा पढ़ाया गया और संसाधनों तक पहुंच के कारण मैन्युअल स्कैवेंजिंग के अलावा दूसरे विकल्प तलाशने में उन्हें कम मुश्किलों का सामना करना पड़ा।

पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के काम को मामूली, गैर-ज़रूरी और आसान समझा जाता है। कई विशेष कामों के लिए महिलाओं की ज़िम्मेदारी भी तय कर दी जाती है। अमूमन, महिलाओं की परवरिश पितृसत्तात्मक परिवेश में होती है, जहां उनके विचार और अधिकार को बढ़ावा नहीं दिया जाता। उन्हें सबके अनुसार खुद को ढालने की सीख बचपन से ही दी जाती है। नतीजन कभी समाज में बहिष्कार के डर, कभी झिझक, कभी नौकरी छूटने के डर, यौन शोषण होने के खतरे या केवल चुप रहने की आदत की वजह से, वे अपने अधिकारों के लिए आवाज़ नहीं उठा पाती।

नियोक्ता के लिए सही वेतन पर पुरुषों को काम पर रखने से, कम वेतन पर महिलाओं को काम पर रखना किफ़ायती और सुविधाजनक है। जब हम सिर्फ ‘महिलाओं को कम वेतन दिया जाता है’ तर्क के लिए फेमिनाइज़ेशन ऑफ़ पावर्टी टर्म का इस्तेमाल करते हैं, तो यह उनके आर्थिक शोषण को उचित ठहराने जैसा होता है। इसे भारत में काम कर रहे महिला और पुरुषों के वेतन और स्थिति के अंतर से समझा जा सकता है। द हिन्दू की बिजनेस लाइन की एक रिपोर्ट बताती है कि कृषि के क्षेत्र में प्रमुख रूप से महिलाओं के काम करने के बावजूद उन्हें पुरुषों की तुलना में 22 प्रतिशत तक कम मजदूरी दी जाती है। कृषि के क्षेत्र में लगे मजदूरों में पुरुषों को 264 रूपए औसत दैनिक मजदूरी दी गई। वहीं महिला मजदूरों को औसत 205 रूपए दिए गए। गैर-कृषि मजदूरों में, पुरुषों को औसत दैनिक मजदूरी 271और महिलाओं को 205 रूपए दिए गए।

कोरोना महामारी के दौरान लगभग हर रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं ने पुरुषों की तुलना अधिक नौकरियां गंवाई। संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग अनुसार भारत में पहले लॉकडाउन के दौरान 47 प्रतिशत महिलाओं की तुलना में केवल 7 प्रतिशत पुरुषों ने अपनी नौकरियां गंवाई।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार 2019 की तुलना में 2021 में रोज़गार में 13 मिलियन महिलाएं कम काम करेंगी जबकि पुरुषों का रोज़गार 2019 के स्तर पर पहुंच जाएगा। जब महिलाओं को श्रम बल से बाहर रखा जाता है, तो आर्थिक नुकसान से साथ-साथ लैंगिक अंतर भी बढ़ता चला जाता है। लैंगिक समानता में एक महत्वपूर्ण पहलू है महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर निर्भर होना। आर्थिक रूप से सक्षम होने के साथ अच्छा रहन-सहन, बेहतर शिक्षा, चिकित्सा तक पहुंच या निर्णय लेने की क्षमता और स्वतंत्रता जैसे कई पहलु जुड़े होते हैं। इसलिए समाज और देश में बन रहे नीतियों को उन्हें दो वक़्त का खाना देने के अलावा गरीबी को जड़ से मिटाने को लक्ष्य करना होगा।

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