जातिगत भेदभाव सच में क्या पुराने ज़माने की बात है?

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जब दलित जाति की लड़कियां पढ़ने के लिए जाती थीं तो मेरे स्कूल के जो मास्टर थे दलित लड़कियों से बहुत काम करवाते थे।

जब मैं स्कूल में थी तो मुझे जाति व्यवस्था के बारे में कुछ भी पता नहीं था। स्कूल में भी भेदभाव की ऐसी कई घटनाएं हुई। जैसे, सर मुझे कभी किताब पढ़ने के लिए नहीं देते थे और मुझे अक्सर एक कोने में बैठा दिया जाता था। अगर किसी को पता चलता था कि मैं एक दलित जाति से आती हूं तो मुझसे कोई भी दोस्ती नहीं करना चाहता था। अगर कोई मुझसे दोस्ती कर भी लेता था तो बाद में जाति पता चलने के बाद दोस्ती तोड़ देता था। आज मै बड़ी तो हो गई हूं और मेरी पढ़ाई भी लगभग पूरी हो चुकी है लेकिन मैं आज भी किसी से दोस्ती करना नही चाहती हूं क्योंकि मुझे हमेशा एक डर लगा रहता है कि कहीं मेरी दोस्ती न टूट जाए। मेरी जाति जानने के बाद सामने वाला मुझसे घृणा न करने लग जाए। इसलिए मैं अपनी जाति किसी को बताना नहीं चाहती हूं।

मैं अपने गांव की इकलौती लड़की नहीं हूं जिसे जाति के कारण स्कूल से लेकर दोस्त बनाने तक में इतना भेदभाव सहना पड़ा। मेरी तरह गांव की और भी बहुत सारी लड़कियां सवर्ण जाति के घरों में जाना नहीं चाहती हैं। उनको हमेशा डर रहता कि कहीं वे उन्हें भगा न दें। जब दलित जाति की लड़कियां पढ़ने के लिए जाती थीं तो मेरे स्कूल के जो मास्टर थे दलित लड़कियों से बहुत काम करवाते थे। जैसे बड़े बरामदे की सफाई करवाना, नीचे बैठकर पढ़ना, पुस्तकालय की किताब नहीं छूने देना, अलग बैठकर खाना खाना। जब मैं अपने गांव की लड़कियों और महिलाओं को जाति के कारण कठिनाइयों का सामना करते देखती हूं तो मैं सोचती हूं कि कोई इंसान एक दूसरे इंसान को जाति के आधार पर इतना प्रताड़ित कैसे कर सकता है।

मेरे गांव का नाम अब्दुल्लाह चक है, यह बिहार के पटना ज़िले के पास है। मेरा जन्म भी इसी गांव में हुआ है। मेरे गांव की ज़्यादातर महिलाएं खेतों में और घर के काम करती हैं। जैसे मेरी मां और दादी भी दूसरे के खेतो में काम करने के लिए जाती थीं। मैं एक दलित परिवार से आती हूं और मेरे गांव में अधिकतर लोग दलित ही हैं। बहुत से लोग सवर्ण जाति से भी आते हैं जिनके पास खुद की जमीन है। मैं जैसे-जैसे थोड़ी बड़ी होती गई तो मुझे एक बात और समझ में आने लगी कि सवर्ण जाति के लोग किस तरह दलित महिलाओं का, उनके श्रम का शोषण करते हैं।

मेरी मां भी दूसरे के खेतों में काम करती हैं और कभी-कभार पट्टे पर भी खेत लेकर उस पर खेती करती हैं। उस समय मैं दस साल की थी। उस समय मेरी मां ने अपने खेत में चने लगाए थे और मेरे खेत में एक सवर्ण जाति के आदमी ने बहुत सारा पानी डाल दिया था जिसके कारण हमारी फसल खराब हो गई थी। इस कारण मेरी मां ने जिससे पट्टे पर खेत लिया था उसे पैसे नहीं दे पाई। तब मेरी मां और पूरा परिवार बहुत रोया लेकिन मैं भी उस समय कुछ नही कर पाई थी। हम सोच रहे थे कि अगर हम में से किसी ने सवर्ण जाति के खेतों में पानी डाल दिया होता तो शायद वे हमें मार ही डालते। लेकिन जब हमारी फसल खराब की गई तो हम इसके खिलाफ़ आवाज़ तक नहीं उठा पाए। हमारे गांव की ही कालो देवी का उत्पीड़न एक सवर्ण ने सिर्फ इसलिए किया था क्योंकि इनकी बेटी ने उस सवर्ण जाति के खेत में से चने तोड़ लिए थे। इनकी बेटी की बहुत ज्यादा पिटाई की गई थी। इनकी बेटी दो दिनों तक बिस्तर से नही उठ सकी थी। यह घटना मेरे सामने ही हुई था। उस आदमी को यह लग रहा था कि एक दलित लड़की होने के बाद भी उसने मेरे खेत में आने की हिम्मत कैसे की?

हले मेरे गांव में सवर्ण जाति के लोग ज्यादा रौब दिखाते थे। यहां तक कि लड़कियों और महिलाओं के साथ गलत व्यवहार करते थे। जैसे उन्हें राह चलते परेशान करना या उनके लिए गलत शब्द का इस्तेमाल करना। वे ऐसा इसलिए करते थे क्योंकि ये जातिवादी लोग यही सोचते थे कि ये दलित औरतें कुछ नहीं कर पाएंगीं। सालों से चले आ रहे जातिगत शोषण के कारण यहां के लोग भी कुछ नहीं कर पाते थे, बस चुपचाप देखते रहते थे। जिन महिलाओं के साथ इस तरह का व्यवहार होता था और जब इन महिलाओं के पति को पता चलता था तो वे महिलाओं को घर से बाहर नहीं निकलने देते थे और कहते थे कि औरत ने ही कुछ किया होगा तब ही तो उसके साथ गलत हुआ है। एक बात इन मर्दों को नहीं समझ में आती थी कि ये जो भी हो रहा है वह इन औरतों के साथ इसलिए हो रहा है क्योंकि वे दलित औरतें हैं।

अभी के दौर में मेरे गांव में थोड़ा बहुत बदलाव ज़रूर हुआ है। अब मेरे गांव की लड़कियां थोड़ा बोलने लगी हैं। अगर कुछ गलत होता है तो चुपचाप सहती नहीं रहती हैं। यह बदलाव उनके शिक्षित हो जाने के कारण ही हुआ है। अब मेरे गांव की लड़कियां सवर्णों की हर बात नहीं सुनती और न ही उनका काम करना  चाहती हैं। महिलाओं में भी बहुत ज्यादा बदलाव हुआ है। जैसे कई महिलाएं अब किसी सवर्ण जाति के घर कुछ काम करने या फिर खेती करने के लिए नहीं जाती हैं। अब महिलाएं आजीविका में काम करती हैं या किसी के खेत को पट्टे पर लेकर एक साल तक खेती करती हैं और फिर पैसे वापस कर देती हैं।

जब भी जातिगत भेदभाव की बात होती है अक्सर आज कल यह सुनने को मिलता है कि आप कौन से ज़माने की बात कर रही हैं? जाति पुराने ज़माने की बात है, आज कल इसकी कौन परवाह करता है। पर क्या वाकई आज जाति मायने नहीं रखती? आये दिन दलितों की हत्या, उनका शोषण, दलित दुल्हे की घोड़ी न चढ़ने देना, भोजन माता के हाथ का खाना न खाना क्योंकि वह दलित है, मूंछ रखने, अच्छे कपड़े पहनने और सिंह नाम रखने, मंदिर में घुस जाने, यहां तक कि लोगों को यह अगर पता चल जाता है कि कोई दलित जाति का है तो उन्हें शहरों में किराये पर कमरे नहीं मिलते हैं। जिन्हें लगता है कि जाति पिछले ज़माने की बात है उन्हें पता होना चाहिए कि हमारे नाम के साथ ही हमारी जाति जुड़ी हुई है। हमारे गली, मुहल्ले, गांव आदि नाम तक जाति पर रखे जाते हैं। हमारे पड़ोसी भी तो हमारे ही जाति समूह के होते हैं।

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