चावल की कहानी, जिसे आप नहीं जानतें!

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हो ही नहीं सकता कि आपकी रसोई में ‘गोविन्द भोग’ चावल पक रहा हो और उसकी सुगंध पड़ोसी के घर तक न पहुंचे. मोतियों जैसे छोटे-छोटे दानों वाले इस चावल को उसकी अनूठी ख़ुशबू के लिए जाना जाता है.

पश्चिम बंगाल के पूर्वी वर्द्धमान ज़िले में बहने वाली दामोदर नदी के दक्षिणी बेसिन के क्षेत्र को इस चावल का गढ़ माना जाता है. फिलहाल इसी राज्य के हुगली, बीरभूम, बांकुरा और पुरुलिया के अलावा बिहार के कैमूर और छत्तीसगढ़ के सरगुजा में भी गोविन्द भोग उगाया जाता है. सुगंध के मामले में गोविन्द भोग से कहीं आगे चावल की एक और दुर्लभ प्रजाति है काला नमक. नेपाल के कपिलवस्तु और उससे लगे पूर्वी उत्तर प्रदेश के तराई के इलाके में उगाए जाने वाले इस चावल को संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य और कृषि संगठन ने संसार के विशिष्ट चावलों की सूची में जगह दी है.

एक कथा प्रचलित है कि ज्ञान प्राप्त कर चुकने के बाद लुम्बिनी के जंगल से गुज़रते हुए भगवान गौतम बुद्ध ने खुद इस इलाक़े के ग्रामीणों को इस चावल के बीज देते हुए कहा था, “इन बीजों से उगने वाले चावल की सुगन्ध तुम्हें हमेशा मेरी याद दिलाएगी.” अनुमान लगाया जा सकता है कि चावल के साथ गौतम बुद्ध का गहरा सम्बन्ध रहा होगा क्योकि उनके पिता शुद्धोदन के नाम का अर्थ होता है- वह जो शुद्ध चावल उगाने वाला है.

चावल के उगाये जाने को जापान, थाईलैंड, कोरिया, चीन और भारत की अनेक लोककथाओं में जगह मिली है. इनमें सबसे दिलचस्प दास्तान जापानी सूर्य देवी अमातेरासू और भोजन देवी ऊकेमोची की है. अमातेरासू ने अपने भाई त्सूकोयोमी को आदेश दिया कि धरती पर जाकर ऊकेमोची से मिल कर आए. त्सूकोयोमी के स्वागत में ऊकेमोची ने अपने मुंह के भीतर से तमाम तरह के भोजन निकाल कर प्रस्तुत किये. जूठा भोजन परोसे जाने से नाराज़ त्सूकोयोमी ने उसकी हत्या कर दी.

इससे क्रुद्ध होकर अमातेरासू ने अपने भाई से सारे सम्बन्ध तोड़ लिए जिसके परिणामस्वरूप दिन और रात अलग-अलग हो गए. अमातेरासू ने एक और देवता को धरती पर भेजा जिसने देखा कि ऊकेमोची के शव के आग-अलग हिस्सों से अनेक तरह के अन्न व प्राणी बाहर निकल रहे थे- माथे से दालें, भवों से रेशम के कीड़े और पेट से चावल. अमातेरासू ने इन सब को इकठ्ठा कराया और मानव जाति के भले के लिए उन्हें बोने की व्यवस्था की. यही कृषि की शुरुआत मानी जाती है. एक और कथा के अनुसार अमातेरासू को एक दिव्य पक्षी ने धान के कुछ बीज दिए.

इन बीजों से सुन्दर चावल उगे जिन्हें अमातेरासू ने एक राजकुमारी को देते हुए निर्देशित किया कि उन्हें आठ महान द्वीपों के देश जापान की मिट्टी में फैला दे. थाईलैंड में प्रचलित एक कथा में वर्णन है कि भगवान विष्णु ने बारिश के देवता इंद्र से कहा कि धरती पर जाकर वहां के बाशिंदों को चावल की खेती करना सिखाएं.

1960 के दशक की हरित क्रान्ति से पहले भारत में चावल की कम से कम 300 ऐसी प्रजातियाँ उगाई जाती थीं, जिन्हें उनकी बेहतरीन खुशबू के लिए जाना जाता था. पिछले कुछ दशकों से खुशबूदार चावल के नाम पर केवल बासमती को भारत के इकलौते अंतरराष्ट्रीय ब्रांड के तौर पर प्रचारित जा रहा है. सच्चाई यह है कि ख़ुद बासमती की अनेक विशिष्ट नस्लें पूरी तरह ख़त्म हो चुकी हैं. मेरा बचपन उत्तराखंड की तराई के एक शहर रामनगर में बीता. यहाँ के ज़्यादातर लोगों के घरों के लिए साल भर का चावल दुकानों से नहीं बंजारों से खरीदा जाता था. नगर-नगर घूम कर अनाज की तिजारत का काम करने वाले ये बंजारे जसपुर-काशीपुर की अनुपम बासमती के अलावा बिंदुली और तिलक चन्दन जैसे चावल ले कर आते थे.

इन बंजारों के पास हर साल सीमित मात्रा में जाड़ों में देहरादून में उगने वाला दून मलाई नाम का महंगा बासमती भी आता था, घरों में जिसकी हिफाज़त किसी खजाने की तरह की जाती थी. इनके अलावा शहर के चुने हुए आढ़तियों के यहाँ सिंध-बलूचिस्तान का चावल तक पहुंचता था. दो बरस पहले की गई अपनी बंगाल यात्रा के दौरान मुझे पता चला कि वहां आज भी 200 से अधिक तरह का चावल उगाया जाता है. गोविन्द भोग के अलावा चावल की कई अनसुनी किस्मों को मैंने चखा और जाना.

कैसे तो आकर्षक उनके नाम थे – तुलाईपंजी, जलप्रभा, राधातिलक, तुलसीकमल, चिनियातोपे, मालीफूलो, बहुरूपी, कार्तिकसाल और न जाने क्या-क्या. मुझे यकीन है देश के हर राज्य के ऐसे ही सुन्दर नामों वाले अपने पारम्परिक चावल जरूर रहे होंगे.

भारत के दूसरे राज्यों की तरह उत्तराखंड में भी चावल की कई देसी प्रजातियों की खेती होती रही है. मेरे कुमाऊं-गढ़वाल के पहाड़ों में मिलने वाला लाल चावल अब बहुत कम देखने को मिलता है. बचपन में गांव जाने पर वही मिलता था. घी में सराबोर गहत की दाल के साथ उसे खाने का आनंद शब्दों की सीमा से परे हुआ करता. कुछ दिन पहले मैंने गांव में रहने वाले एक दोस्त से लाल चावल की मांग की तो उसने बताया कि अव्वल तो उसे उगाया ही नहीं जाता. और कहीं वह उगता है भी तो उसे मड़ाने के लिए ओखल-मूसली का इस्तेमाल करना लोग भूल गए हैं.

ज्यादातर घरों के आँगन में स्थाई रूप से बनाई गयी ओखलों को सीमेंट से पाट दिया गया है कि कहीं दिल्ली-बंबई से छुट्टियों में दादी-नानी के घर आने वाले बच्चों के पाँव उनमें उलझ न जाएं.

लाल धान को चक्की वाले के पास भेजिए तो मशीन चावल को इस कदर घिस देती है कि उनका लाल रंग गायब हो जाता है और वे बेस्वाद हो जाते हैं. झंगोरा या झुंगरा नाम का एक और तरह का चावल होता था जिसकी खीर बना करती थी. वह भी नहीं के बराबर मिलता है. ऐसे अद्वितीय चावलों की महक धीरे-धीरे गायब होती गई और मिलों में पैक किये गए एक जैसे चावलों से बाजार पटता चला गया है. चावल के विकास का इतिहास मनुष्य के विकास के साथ अपरिहार्य रूप से जुड़ा हुआ है. मोटा-मोटी पांच से आठ हज़ार साल पहले चावल की खेती सबसे पहले चीन, दक्षिण एशिया, उत्तर भारत, इंडोनेशिया, बर्मा और जापान में किये जाने के प्रमाण मिलते हैं.

पश्चिमी और मध्य अफ्रीका में चावल का कोई 3,000 साल का इतिहास है. साहसी जहाजी अभियानों और गुलामों की खरीद-फरोख्त के व्यवसाय के चलते चावल अमेरिका और यूरोप तक पहुंचा. आज दुनिया की कोई ऐसी रसोई नहीं जहाँ चावल न पकाया जाता हो.

फिलीपींस के अंतरराष्ट्रीय चावल शोध संस्थान की 2010 की एक रपट के मुताबिक़, दुनिया का हर तीसरा व्यक्ति दिन के कम से कम एक भोजन में चावल खाता है. चावल की प्रति व्यक्ति खपत सबसे अधिक ब्रुनेई में है जहां का एक आदमी साल में 245 किलो चावल हजम कर जाता है. दूसरे और तीसरे नंबर पर क्रमशः विएतनाम और लाओस हैं. आश्चर्य है कि भारत और चीन, जहाँ चावल के उगाये जाने की शुरुआत हुई थी, इस सूची के शुरू के 20 नामों तक में अपनी जगह नहीं बना सके हैं.

1850 के दशक में कैलिफोर्निया के गोल्ड रश के दौरान अच्छे रोज़गार के लिए कम से कम चालीस हज़ार चीनी मजदूर वहां के साक्रामेंटो पहुंचे. इन मजदूरों को सुबह-शाम चावल खाना होता था जो वहां उगता नहीं था. सो इनके लिए चीन से चावल का आयात किया जाने लगा. कोई चालीस-पचास सालों बाद कैलिफोर्निया में स्थानीय चावल की खेती शुरू हुई. 1950 के आते-आते साक्रामेंटो घाटी में भरपूर चावल उगने लगा था. 2008 की एक हैरान कर देने वाली रिपोर्ट बताती है कि कैलिफोर्निया में उगने वाले कुल चावल का 50 फीसदी आज जापान, उज्बेकिस्तान, टर्की और कोरिया को निर्यात होता है.

बहरहाल, साक्रामेंटो पहुंचे इन्हीं शुरुआती चीनी मजदूरों ने संपन्न होते ही अमेरिका के पहले चाइनीज रेस्तरां खोले. रात के बचे बासी भात को सुबह तेल का तड़का लगाकर खाने वाले इन मजदूरों ने इस व्यंजन को फ्राइड राइस का नाम दिया. दुनिया भर के रेस्तराओं के मेन्यू में फ्राइड राइस आज एक महत्वपूर्ण व्यंजन बन चुका है. उत्तर भारत और अफगानिस्तान में चावल की खेती करीब 5,000 साल पहले शुरू हुई जो धीरे-धीरे पश्चिम में सिन्धु घाटी और दक्षिण में भारतीय प्रायद्वीप की तरफ फैली. गंगा के मैदानों में इसकी शुरुआत ईसा से 2,500 वर्ष पहले हुई.

उस समय के अर्ध-घुमंतू शिकारी और मछुआरे समुदायों को मध्य एशिया के मंगोल आक्रमणकारियों का लगातार भय बना रहता था, सो उपजाऊ भूमि की तलाश में वे नियमित रूप से एक से दूसरी जगह पलायन करते रहते थे. इस क्रम में भारतीय आर्य, कॉकेशस, ईरान और हिन्दुकुश के पर्वतों को पार कर अफगानिस्तान, पंजाब और दिल्ली जैसी जगहों पर बसे. यही लोग अपने साथ चावल की अलग-अलग प्रजातियाँ तैयार करते गए होंगे. ईसा से 1,000 वर्ष पहले भारत से अफगानिस्तान और ईरान के रास्ते चावल मध्य पूर्व पहुंचा और अगले 500 सालों में वहां से यूनान, उत्तरी अफ्रीका, मिस्र और लीबिया. बाद की शताब्दियों में उत्तर-पश्चिमी अफ्रीकी आक्रान्ताओं ने दक्षिणी यूरोप पर कब्ज़ा जमाया और चावल को सिसली और स्पेन तक पहुंचा दिया. इससे पहले ईसापूर्व चौथी शताब्दी में सिकंदर भी भारत से यूनान ले जा चुका था.

चावल के आवागमन की एक दूसरी दास्तान के तार अफ्रीका से जुड़ते हैं जिसके पश्चिमी तटों से लगे विस्तृत इलाकों में काले छिलके वाले चावल की खेती किये जाने का कई हजार साल का इतिहास खोजा जा चुका है. 16वीं शताब्दी में शुरू हुआ अफ्रीकी गुलामों की खरीद-फरोख्त का घृणित कारोबार करीब 350 साल चला. इस दौरान करोड़ों की संख्या में अफ्रीकी लोगों को उनके घरों से उठा कर दुनिया के अलग-थलग कोनों में फेंक दिया गया जहाँ उन्हें नरक से भी बदतर परिस्थितियों में जानवरों जैसा जीवन जीने को मिला. इनमें कम से कम 50 लाख स्त्रियाँ थीं.

लम्बी समुद्री यात्राओं में इन गुलाम स्त्रियों को मोटा अफ्रीकी चावल खाने को मिलता था. इस चावल का स्वाद उन्हें उनकी मातृभूमि की स्मृतियों से जोड़े रखता. ठिकाने लगा दिए जाने के बाद इन्हें गन्ने और कॉफ़ी के अमेरिकी और यूरोपियन प्लान्टेशनों में जोत दिया जाता था. इन जगहों पर एशियाई मूल का सफ़ेद चावल पहले से ही पहुँच चुका था. यह चावल अफ्रीकी चावल के मुकाबले बेस्वाद तो होता ही था उसकी न्यूट्रीशनल वैल्यू भी कम होती थी.

धान रोपने से लेकर चावल माड़ने तक की लम्बी और जटिल प्रक्रियाओं को काली स्त्रियों ने साध रखा था. उनके खेत उनके मंदिर थे. यह उनकी नैसर्गिक समझ और प्रकृति के ज्ञान का नतीजा था कि उनका चावल विषम से विषम परिस्थितियों में उग जाता था. अजनबी परिवेश में गुलाम बनाये जा चुकने के बावजूद उन्होंने अपनी पुरखिनों द्वारा अर्जित किये गए पारम्परिक ज्ञान को महफूज रखने का हर संभव जतन किया. गोरों द्वारा जबरन कब्जाए जाने के बाद अमेरिका और गोरे उपनिवेशों वाले जिस संसार को उन्होंने अपने मजबूत शरीरों की मशक्कत के बल पर आकार दिया उसे न्यू वर्ल्ड कहा गया. अटपटे स्वाद वाला भोजन परोसे जाते समय इस न्यू वर्ल्ड में उन्हें अपने घर की रसोई का स्वाद याद आता था.

पश्चिमी अफ्रीका की औरतें अपने बालों की लटों में धान के बीज गूंथ कर रख सोया करती थीं. क्या मालूम कब उन्हें बेच दिया जाय, किस ठौर फेंक दिया जाय! गुलाम अफ्रीकी स्त्रियों ने अपनी लटों में छिपाए गए धान के इन्हीं बीजों की मदद से अपने घर उगने वाला चावल उगाया.

इस तरह अजनबी मुल्कों में बनाई गयी अपनी रसोइयों में उन्होंने खुशबू पैदा की. चूंकि मालिकों द्वारा अपने गुलामों को किसी तरह का श्रेय दिए जाने की परम्परा नहीं थी उनकी इस उपलब्धि को अमरीकी इतिहास में 20-30 साल पहले तक दर्ज तक नहीं किया गया था. अब दुनिया भर के कृषि विश्वविद्यालय चावल का नया इतिहास लिख रहे हैं. मनुष्य के अंतर्राष्ट्रीय आवागमन और व्यापार के एक से एक दिलचस्प किस्से चावल से बनाए जाने वाले हर लोकप्रिय व्यंजन के साथ जुड़े हुए हैं.

स्थानीय मसालों का फर्क छोड़ दें तो अपने मूलभूत स्वभाव में हमारे यहाँ जिसे बिरयानी और ईरान में पुलाव कहते हैं वह इटली का रिसॉटो और स्पेन का पाएय्या है. इन सभी व्यंजनों की परिकल्पना सीधे-सीधे इस्लामी व्यापारियों और मुग़ल बादशाहों की देन है.

12वीं शताब्दी में चालुक्य राजा सोमेश्वर तृतीय का लिखा एन्साइक्लोपीडिया सरीखा संस्कृत ग्रन्थ ‘मानसोल्लास’ एक अद्भुत पुस्तक है. राजा सोमेश्वर भी चावल प्रेमी थे. उन्होंने आठ तरह के चावल और उनके लक्षण बताये हैं- शालिरक्त, महाशालि, गंधशालि, कलिंगक, मुंडशालि, स्थूलशालि, सूक्ष्मशालि और सषष्ठिक. लाल रंग का चावल शालिरक्त, बड़ी आकृति वाला महाशालि, खुशबू वाला गंधशालि, कलिंग देश में उगने वाला कलिंगक, मोटा चावल स्थूलशालि, छोटे दानों वाला सूक्ष्मशालि और साठ दिन में पाक जाने वाला सषष्ठिक कहलाता था. इस सषष्ठिक धान को आज भी उत्तर भारत में साठिया धान कहा जाता है.

महाभारत काल के भोजन का वर्णन सम्राट नल द्वारा लिखे गए ग्रन्थ ‘नल पाकदर्पण’ में मिलता है. वे बताते हैं कि पकाने से पहले चावल को थोड़ा गर्म जल से धोया जाना चाहिए: “क्षालयेन बुध सम्यगीषदुष्णेन वारिणा”.

इसके अलावा उन्होंने चावल में पकाते समय दूध और मठ्ठा डालने का विधान भी लिखा है: “तत्रैव तु सदा सिंचत तक्र क्षीर पयोथवा”. आगे लिखा है कि इस प्रकार का चावल आयु और आरोग्य बढ़ाने वाला होता है-

“इद तंडुलसूभतमायुरारोग्यवर्धनम”.

उत्तराखंड के कुमाऊँ में धान की रोपाई के साथ एक पुरानी परम्परा जुड़ी हुई है. गाँवों में रोपाई का काम आज भी सामूहिक तरीके से किया जाता है. गाँव की सारी महिलाएं एक-एक कर सभी खेतों में धान बोती हैं. यह कार्य बहुत श्रमसाध्य होता है. इसे जीवंत बनाने के लिए पुरखों ने मनोरंजनका तत्व शामिल किया.

गाँव का लोकगायक हुड़का नामक वाद्य लेकर रोपाई की जगह पहुंचता है और उसकी थाप पर पुरानी गाथाओं को गाकर सुनाता है. इनमें कुमाऊँ के विख्यात चंद राजाओं और स्थानीय लोकदेवताओं की दास्तानों के साथ ही आम जन के जीवन से जुड़े दुःख-सुख के तमाम किस्से होते हों.

हुड़किया बौल के नाम से जानी जाने वाली इस परम्परा को आज भी कुमाऊँ की उपजाऊ सोमेश्वर घाटी के गाँवों में देखा जा सकता है. इस अकेली घाटी में कम से कम दो दर्ज़न अलग-अलग तरह के चावल उगते हैं जिनके बीजों के संरक्षण और प्रसार का काम बहुत सावधानी से किया जाता है.

चावल और उसकी प्रजातियों के इतिहास, उसकी सामाजिकता और अर्थव्यवस्था, उसकी खेती करने के तरीकों, उसके स्वाद और महक जैसे असंख्य आयाम हैं जिन पर आज दुनिया भर में खूब शोध हो रहा है. यह और बात है कि जैसे-जैसे हम और हमारा समाज आधुनिक बन रहे हैं, वे सारी चीजें संसार से गायब होती चली जा रही हैं जिनसे खुशी मिलती थी और जो अपने आप सबसे बहुमूल्य यादों का हिस्सा बन जाती थीं. एक ऐसा समाज बन रहा है जिसमें सुख की परिभाषा में दिखावा है, दुष्टता है, लालच है पर सुख नहीं है.

भात की महक जैसी आदिम, मानवीय, निर्मल, निश्छल चीज का ये हाल है कि बाजार में अब अमूमन फकत दो तरह का चावल मिलता है – सस्ता चावल और महँगा चावल. इसे गरीब चावल और अमीर चावल भी कहा जा सकता है. खुशबू दोनों से नहीं आती.

(अशोक पाण्डे, बीबीसी हिंदी से साभार)

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